काशीपुर की ऐतिहासिक प्रसिद्धि गोरखपुर में प्रकाशित हिंदी मासिक पत्रिका 'कल्याण' के प्रथम रामायण अंक के लेखक बी. एच. वडेर के "रामकालीन भारतवर्ष" नामक लेख में लिखित महाभारत कालीन उज्जानक व गोविषाण नाम से प्राप्त हुई है।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर व हिंदी विश्व कोष के प्रधान संपादक व साहित्य शिरोमणि डॉक्टर धीरेंद्र वर्मा अनुसार "यही वह स्थान है जहां आचार्य द्रोण के पुत्र अश्वत्थामा पले बढ़े थे, जिनके दूध पीने की हठ को पूरा न कर सकने के कारण आचार्य को उन्हें खड़िया घोलकर देनी पड़ी थी और जिसे पीकर बालक अश्वत्थामा यह कहकर कूदते फिरते थे कि मैंने गाय का दूध पीया है, यहीं पांडवों की शस्त्र शिक्षा हुई थी औऱ यहीं गुरुदक्षिणास्वरूप एकलव्य का अंगूठा मांगा था।"
कल्याण शिवांक में व्याकरणाचार्य, काव्यतीर्थ, एम. ए., रिसर्च स्कॉलर बनारस, शिवशंकर नागर जी ने "उज्जानक के भीमशङ्कर " शीर्षक के उनके लेख में द्रोणासागर को सतयुग का कश्यप आश्रम, त्रेता युग का श्रवण तीर्थ , द्वापर का उज्जानक तीर्थ सिध्द किया था
रामकाल और उज्जानक(त्रेता युग) :
श्रवण कुमार अपने माता पिता सहित तीर्थयात्रा से लौटते हुए यहां ठहरे थे, महर्षि बाल्मीकि रचित रामायण में बदरी-केदार यात्रा के अंश में इस क्षेत्र का अनुपम व महत्वशाली वर्णन मिलता है
पाण्डवकाल और उज्जानक(द्वापरयुग)
महाभारत वनपर्व में काम्यक वन व उज्जानक तीर्थ का अनुपम वर्णन है, युधिष्ठिर आदि पंच पांडवों को जब वनवास एवं अज्ञातवास का दंड दिया गया तो उन्होंने कुछ काल काम्यकवन में निवास किया और वहां महर्षि धौम्य के उपदेश पर, उन्होंने तीर्थयात्रा द्वारा पुण्योपार्जन करने का निश्चय किया। इससे पूर्व गाण्डीवधारी अर्जुन पाशुपतास्त्र आदि दिव्य अस्त्रों की शिक्षा लेने इंद्रकील पर्वत पर भगवान शंकर की उपासना के हेतु जा चुके थे इस समय युधिष्ठिर आदि अनमने से हो रहे थे, अतः महर्षि लोमश के साथ तीर्थयात्रा के लिये चल पड़े। क्रमश: पूर्व दक्षिण और पश्चिम की यात्रा निपटाकर जब वे उत्तर की यात्रा को चले तो मार्ग में अनेक तीर्थों में भ्रमण एवं पुण्यार्जन करते हुए वे उज्जानक तीर्थ पर आए।
इदमाश्चर्यमपरं देशेस्मिन् पुरुषर्षभ।
क्षीणे युगे तु कौन्तेय शर्वस्य सह पार्षदै:।।सहोमया च भवति दर्शनं कामरूपिण:।।
अर्थात् " हे नरश्रेष्ठ!इस देश मे परम् आश्चर्य की बात यह है कि यहां निवास करने वाले साधक को, युग के अंत मे, पार्वती व पार्षदों सहित इच्छानुसार रूपधारी भगवान शंकर का प्रत्यक्ष दर्शन होता है"
अस्मिन् सरसि सत्रैर्वे चैत्रे मासि पिनाकिनम्।
यज्ञन्ते याजका: सम्यक् परिवारं शुभार्थिन:।।महाभारत वनपर्व
अर्थात् "इस सरोवर के तट पर कल्याण की इच्छा करने वाले यज्ञकर्तागण अनेक प्रकार के यज्ञों द्वारा परिवार सहित पिनाकधारी भगवान शिव की आराधना करते हैं।"
अत्र उपस्पर्श्य सरसि श्रद्द्धानो जितेंद्रिय:।
क्षीणपाप: शुभान् लोकान् प्राप्नुते न अत्र संशय:।।महाभारत वनपर्व
अर्थात् "इस सरोवर में श्रद्धापूर्वक स्नान व आचमन करके पापमुक्त हुआ जितेंद्रिय शुभ लोकों में जाता है इसमें संशय नही है"
एष उज्जानको नाम पावकिर्यत्र शांतवान्।
अरुन्धती सहायश्च वसिष्ठो भगवान् ऋषि।।महाभारत, वनपर्व
इसी उज्जानक तीर्थ में अरुन्धती व महर्षि वशिष्ठ ने साधना करके सिद्धि एवं शांति प्राप्त की।
इसी तीर्थ के नाम से सम्पूर्ण स्थान उज्जानक कहलाया।जो पश्चिम में सुवर्णभद्रिका(बाद में कथित ढेला) व पूर्व में बहुला नदी की परिधि के क्षेत्र में था।
महाभारत वन पर्व प्रसंग में उज्जानक स्थान काम्यक वन के डाकिनी क्षेत्र के अंतर्गत कहा गया है, जो हिडिम्ब आदि राक्षसो का क्षेत्र था, जिसका वध कौन्तेय भीम ने किया , हिडिम्ब की बहन हिडिम्बा ने भीम की वीरता से प्रभावित हो राक्षसी परम्परानुसार विवाह प्रस्ताव किया , धर्मराज युधिष्ठिर के समझाने पर भीम विवाह हेतु मान गए व वीर घटोत्कच पुत्ररत्न हुआ।काम्यक वन में डाकिनी क्षेत्र में हिडिम्बा मन्दिर आज भी हैं।
तांत्रिक मत:
तन्त्रचूड़ामणि अनुसार जब माता सती अपने पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में सती हो गई तो उनके मृतशव को लेकर भगवान शंकर उन्मत्त गति से तीनों लोकों में घूमने लगे, जब भगवान विष्णु ने देखा कि ये सती के शव को इस प्रकार न छोड़ेंगे, तब विष्णुजी ने सुदर्शन चक्र को आज्ञा दी कि तुम महासती के शव के खंड खंड कर पृथ्वी पर गिरा दो।आज्ञा पाते ही सुदर्शन चक्र ने महासती के शव के खण्ड खण्ड कर डाले। ये खण्ड पृथ्वी पर जहां जहां गिरे वहाँ वहॉं ज्योतिर्मय शिव- शक्तिपीठ आविर्भूत हो गए।
बहुलायाँ वामबाहु: बहुलाख्या च देवता।
भीरुको भैरवस्तत्र सर्वसिद्धिप्रदायक:।।तन्त्रचूड़ामणि
अर्थात् बहुला नदी के तट पर बहुला नामक शक्तिपीठ एवं भीरुक नामक शिवपीठ माता सती के वामबाहु पड़ने पर आविर्भूत हुए, जो सब प्रकार की सिद्धि के प्रदाता हैं।
बहुला नदी पर शिवशक्तिपीठ का विराजमान होना महाभारत वनपर्व के उक्त शिवपीठ की ओर ही संकेत कर रहा है।
द्वापरकाल मे इस भीरुक नामक स्वयम्भू शिवलिंग को कौन्तेय भीम ने खोजा था व अपने गुरु द्रोण को समर्पित किया था , शिवलिंग के भीम(विशाल) आकार के कारण व इसी भीम प्रसंग के कारण भीमगदा व कालांतर में भीमशङ्कर महादेव नाम से ख्यापित हुए
डाकिन्यां भीमशंकरम्(डाकिनी क्षेत्र में भीमशंकर) 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है।
"सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालमोंकारं ममलेश्वरम् ॥
परल्यां वैजनाथं च डाकिन्यां भीमशंकरम् ।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने ॥
वारणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमी तटे।
हिमालये तु केदारं ध्रुष्णेशं च शिवालये ॥
एतानि ज्योतिर्लिंगानि सायं प्रातः पठेन्नरः।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरेण विनश्यति ॥"
शिवपुराण (गीता प्रेस प्रकाशन) में भी नैनीताल के पास उज्जानक क्षेत्र में भीमशङ्कर ज्योतिर्लिंग बताया गया है जबकि असम व महाराष्ट्र में भी भीमाशंकर नाम से ज्योतिर्लिंग बताया गया है।
सोमनाथ मंदिर में 12 ज्योतिर्लिंगों में नैनीताल के समीप काशीपुर में भीमशङ्कर महादेव दर्शाये गये है अतः मुमुक्षु शिवभक्त 12 ज्योतिर्लिंग दर्शन के समय उक्त तीनों शिवलिंग के दर्शन किया करते हैं ।
स्कंद पुराण में भी भीमशङ्कर महादेव को मोक्ष व सिद्धिप्रदायक दिव्य शिवलिंग बताया गया है।
भीमशंकर महादेव शिवलिंग की मोटाई के कारण क्षेत्र में मोटेश्वर महादेव नाम से अधिक जाने जाते
इस मंदिर का जीर्णोद्धार 302 ईसवी में व उसके उपरांत 1980 में व शिवभक्तों द्वारा अनवरत होता रहा है।
बद्री केदारनाथ यात्रा कण्व ऋषि के आश्रम से आरम्भ व अवतरण कश्यपाश्रम(काशीपुर) क्षेत्र में होता, यह परम्परा रही है।
राम,कृष्ण, बुध्द, तुलसीदास, गुरुनानक, गुरु गोरक्षनाथ, स्वामी दयानंद सरस्वती, करपात्री महाराज आदि महात्माओं के चरणकमल इस उज्जनक क्षेत्र पर पड़ चुके हैं सम्राट हर्ष के काल मे चीनी यात्री ह्वेनसांग 629 ई में भारत आये थे व 16 वर्ष रहे थे, उनके यात्रावृत्त में इस स्थान का नाम गोविषाण कहा गया है 19 वीं सदी में सुप्रसिध्द कलासंरक्षक बिशप हैबर के कथनानुसार काशीपुर हिन्दुओ का अत्यंत प्राचीन व प्रसिद्ध तीर्थ है
आर्कियोलॉजिकल डिपार्टमेंट के प्रथम डायरेक्टर जनरल व सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने 1862-63 में इस क्षेत्र का अन्वेषण किया था व आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया volume I to XXIII में पहली जिल्द में पृष्ठ 252 से 255 में गोविषाण शीर्षक से यहां के अन्वेषण का विस्तार पूर्वक वर्णन किया है
ऐसे क्षेत्रों का सर्वप्रथम धार्मिक महत्व है और तदुपरांत उन क्षेत्रों पर राज्य करने वाले नृपतियों के, अनुकूल प्रतिकूल आचरण करने वाले राजाओं, श्रीमंतों, सामंतों, एवं कूटनीतिचारी मंत्रीगणों की मंत्रणाओं एवं युध्द क्षेत्रों के इतिहास का महत्व है।कठोर तपस्या द्वारा संसाधित धार्मिकता का स्थान सर्वदा प्रथम ही रहेगा। इतिहास तो केवल अर्थनीति पर ही खड़ा है, अतः धर्मप्राण भारतवर्ष में इसे तबतक द्वितीय स्थान ही प्राप्त होता रहेगा जब तक चन्द्र सूर्य वर्तमान हैं।
कूर्मांचल की उपत्यका(तराई) में बसी हुई इस लघुकाय नगरी में चतुर्दिक विराजमान 108 शिवपीठों, अनेकों रम्य सरोवरों, प्रमुख शक्तिपीठों एवं सिध्द आश्रमों के साथ विराजित सतीमठों से इस क्षेत्र की पवित्रता सदैव अक्षुण्ण बनी रहेगी। अनेक सिद्धों महात्माओं की परंपराओं ने ही उनकी जन्मजन्मांतर की तपस्याओं और साधनाओं ने ही इस भूमि को पवित्रता प्रदान की है। यह सब कुछ एक दिन या छोटे से काल मे ही सम्भव नही हुआ है, युग युगांतर की भावनामय तपस्याओं से ही इस स्थली की पवित्रता का निर्माण हुआ है। अतएव यह क्षेत्र हिन्दुओ की महत्वपूर्ण धरोहर है जो युगों से प्रकाशस्तम्भ बनी भविष्य का पथप्रदर्शन करती रहेगी।
पुराणों के परिशीलन से पता चलता है कि इस क्षेत्र पर अनेक बार धार्मिक क्रांतियाँ आई और प्रायः सभी अवतारों एवं सिद्धों महात्माओं, युगप्रवर्तकों, तीर्थपर्यटकों एवं भूमण्डल के परिक्रमाकारों ने अपनी चरणधूलि से इस क्षेत्र को पवित्र किया है